Wednesday, September 19, 2007

...समुद्र कि लहरों को जब वायू प्रबल वेग से उठाती गिरातीं हैं, तब जल शिखर वायू के वेग के कारण अस्थिर हो जातें हैं। ऐसे समय में जल शिखरों के उपरी भाग में फेन की सृष्टी होती हैं । इस क्रिया के दौराण पानी के उन लहरों पर कई बुल्बुलें बनतें और फूटतें हैं । हवा के वेग से मानो बुल्बुलों का संसार भी हलचल से भर जाता है । वे इधर उधर बिखर कर मिट जातें हैं परंतु लहरें उठतीं गिरतीं रहतीं हैं ....


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पर अगर बुल्बुलों के उसी संसार के साथ हमारा संसार भी कहीं खो जाए तो? अगर उसी संसार में हमारा सारा जीवन बसा हुआ हो, तो? लहरें भी किनारा पातें ही उसी किनारे पर मिट जातीं हैं । तो फिर बुल्बुलों का क्या कसूर होता है जो उन्हें पहले ही दम तोरना परता है? हमारा क्या कसूर अगर हम उन बुल्बुलों को ही अपना साथी मान बैठें?

basically, im insane.

4 comments:

Lucid Darkness said...

Tumhari koyi kasur nahi hai. Tum lekeron ki saath saath chalti jaa rahi thi, lekin woh leheron toh kahi bhi ja sakte hain.

Tumhe kya pata, weh kis or jayenge.

Tumhe toh leheron ki disha pehle se malum nahi ho sakti thi. Aur malum hota bhi toh tum apni disha bhi badal nahi sakti thi.

Thik hai. Tum zara kho gayi ho. Lekin tumhe apni nayi disha zarur mil jayegi. Aur tab tumhe apni woh hasi phir se mil jayega.

:]

PG said...

Aww...May I offer you my warmest of hugs?

PG said...

P.S. Thank you for adding me to your blog roll. Could you link it to 'Many False Starts Later' instead of my profile though?

Sayan said...

Oh so sweet.

My Hindi sucks. :|